भाषा एवं साहित्य >> माओ-चे-तुङ्ग माओ-चे-तुङ्गराहुल सांकृत्यायन
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भूमिका
‘माओ-चे-तुङ्ग’ इस माला की चौथी और अन्तिम पुस्तक है। ‘स्तालिन’ से शुरू कर के ‘कार्ल मार्क्स’ और ‘लेनिन’ को लिख डालने के बाद मैंने इस पुस्तक में हाथ लगाया। पुस्तक जैसी भी है, पाठकों के सामने है। गुण-दोष के बारे में वही कहने के अधिकारी हैं। मैंने आधुनिक जगत् के महान् निर्माताओं की जीवनियों, सिद्धान्तों और कार्यों के बारे में हिन्दी में कमी अनुभव की, जिसकी ही पूर्ति के लिये इन चारों पुस्तकों को लिखा। माओ एसिया के हैं, और एसिया में भी चीन के, जिसका भारत के साथ सांस्कृतिक दानादान और घनिष्ठता बहुत पुरानी है। यह कह सकते हैं, कि दोनों की विचारधारा और जीवन में प्राचीन काल से ही बहुत घनिष्ठता रही है। यद्यपि मार्क्सवाद का प्रयोग (व्यवहार) हरेक देश में उसकी परिस्थिति के अनुसार करना पड़ता है, जो सबसे मुश्किल काम है, तथापि कहना चाहिए कि मार्क्सवाद को अपने देश में व्यवह्तत करने के मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ चे-तुङ्ग जैसी प्रतिभाओं की आवश्यकता लिये है। हर देश में क्रान्ति और नवनिर्माण की शक्तियाँ मौजूद हैं, समय भी कभी-कभी मिलता है, लेकिन क्रान्ति की सफलता के लिये वहाँ ऐसी ही महान् प्रतिभाओं की आवश्यकता है। आवश्यकता है, तो प्रतिभा जरूर पैदा होकर रहेगी। हमारे देश के लिये तो माओ की जीवनी बड़ी ही लाभदायक है।
पुस्तक लिखने में मेरे मित्र डॉ० महादेव साहा ने बड़ी सहायता की है। उन्होंने पुस्तकों के जमा करने में इतनी तत्परता न दिखलाई होती, तो शायद यह लिखी भी न जाती। इसी तरह साथी सच्चिदानन्द शर्मा, ओमप्रकाश शर्मा और शिव वर्मा का भी मैं कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने सामग्री जुटाने में बड़ी सहायता पहुँचाई।
पुस्तक के टाइप करने में श्री मंगलसिंह परियार की सहायता का मैं कृतज्ञ हूँ।
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